वांछित मन्त्र चुनें

यस्या॑स्ते घोरऽआ॒सञ्जु॒होम्ये॒षां ब॒न्धाना॑मव॒सर्ज॑नाय। यां त्वा॒ जनो॒ भूमि॒रिति॑ प्र॒मन्द॑ते॒ निर्ऋ॑तिं त्वा॒हं परि॑ वेद वि॒श्वतः॑ ॥६४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यस्याः॑। ते॒। घो॒रे॒। आ॒सन्। जु॒होमि॑। ए॒षाम्। ब॒न्धाना॑म्। अ॒व॒सर्ज॑ना॒येत्य॑व॒ऽसर्ज॑नाय। याम्। त्वा॒। जनः॑। भूमिः॑। इति॑। प्र॒मन्द॑त॒ इति॑ प्र॒ऽमन्द॑ते। निर्ऋ॑ति॒मिति॒ निःऽऋ॑तिम्। त्वा॒। अ॒हम्। परि॑। वे॒द॒। वि॒श्वतः॑ ॥६४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:12» मन्त्र:64


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

किस प्रयोजन के लिये स्त्री पुरुष संयुक्त होवें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (घोरे) दुष्टों को भय करने हारी स्त्री ! (यस्याः) जिस सुन्दर नियम युक्त (ते) तेरे (आसन्) मुख में (एषाम्) इन (बन्धानाम्) दुःख देते हुए रोकनेवालों के (अवसर्जनाय) त्याग के लिये अमृतरूप अन्नादि पदार्थों को (जुहोमि) देता हूँ, जो (जनः) मनुष्य (भूमिरिति) पृथिवी के समान (याम्) जिस (त्वा) तुझ को (प्रमन्दते) आनन्दित करता है, उस तुझ को (अहम्) मैं (विश्वतः) सब ओर से (निर्ऋतिम्) पृथिवी के समान (त्वा) (परि) सब प्रकार से (वेद) जानूँ, सो तू भी इस प्रकार मुझ को जान ॥६४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पति अपने आनन्द के लिये स्त्रियों का ग्रहण करते हैं, वैसे ही स्त्री भी पतियों का ग्रहण करें। इस गृहाश्रम में पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति सुख का कोश होता है। खेतरूप स्त्री और बीजरूप पुरुष है, जो इन शुद्ध बलवान् दोनों के समागम से उत्तम विविध प्रकार के सन्तान हों, तो सर्वदा कल्याण ही बढ़ता रहता है, ऐसा जानना चाहिये ॥६४ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कस्मै प्रयोजनाय दम्पती भवेतामित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(यस्याः) सुव्रतायाः स्त्रियाः (ते) तव (घोरे) भयानके (आसन्) आस्ये मुखे (जुहोमि) ददामि (एषाम्) वर्त्तमानानाम् (बन्धानाम्) दुःखकारकत्वेन निरोधकानाम् (अवसर्जनाय) त्यागाय (याम्) (त्वा) त्वाम् (जनः) (भूमिः) (इति) इव (प्रमन्दते) आनन्दयति (निर्ऋतिम्) भूमिमिव (त्वा) (अहम्) (परि) सर्वतः (वेद) जानीयाम् (विश्वतः) सर्वतः। [अयं मन्त्रः शत०७.२.१.११ व्याख्यातः] ॥६४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे घोरे पत्नि ! यस्यास्त आसन्नेषां बन्धानामवसर्जनायामृतात्मकमन्नादिकं जुहोमि, यो जनो भूमिरिति यां त्वा प्रमन्दते, तामहं विश्वतो निर्ऋतिमिव त्वा परि वेद, सा त्वमित्थं मां विद्धि ॥६४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा पतयः स्वानन्दाय स्त्रियो गृह्णन्ति, तथैव तस्मै स्त्रियोऽपि पतीन् गृह्णीयुः। अत्र गृहाश्रमे पतिव्रता स्त्री स्त्रीव्रतः पतिश्च सुखनिधिरिव भवति। क्षेत्रभूता स्त्री बीजरूपः पुमान्, यद्येतयोः शुद्धयोर्बलवतोः समागमेनोत्तमा विविधाः प्रजा जायेरँस्तर्हि सर्वदा भद्रं भवतीति वेद्यम् ॥६४ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे पती आपल्या आनंदासाठी स्त्रियांचा स्वीकार करतात तसे स्त्रियांनीही पतींचा स्वीकार करावा. गृहस्थाश्रमात पतिव्रता स्त्री व पत्नीव्रत पती हा सुखाचा कोश असतो. बलवान व शुद्ध स्त्रीरूपी भूमी व पुरुषरूपी बीज या दोघांच्या समागमाने उत्तम व विविध प्रकारची संताने झाली तर नेहमी कल्याण होते हे जाणले पाहिजे.